Last modified on 19 अप्रैल 2011, at 21:24

वोटर उवाच / वीरेंद्र आस्तिक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:24, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेंद्र आस्तिक |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> उस दर्पण को …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उस दर्पण को
रचा हमीं ने
उसमें अपना रूप
नहीं दिखता है

दर्पण, राजा है
दर्पणकार अपरिचित-सा परजा
दर्पण की शानो-शौकत पर
है अरबों का खर्चा
देखा?
अपनी ही संसद के
वह ग्रह-नक्षत्र
सँवारा करता है

दर्पण में
चलती रहती है
विकास की द्वन्द्व-कथा
ऐसे सब्ज़-बाग हैं
जिनकी धरती का नहीं पता
इससे पहले तोष बहुत था
अब तो केवल
असंतोष उगता है

वोट अमृत है
इसको पीकर
अमर हो गया दर्पण
कोई तोड़े तो जी उठता है
हर टुकड़े में दर्पण
राहु-केतुओं का हर घर में
हर किरच-कोंण का
दंश दहकता है ।