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सिपाही हूँ / केदारनाथ अग्रवाल

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सिर नहीं-
गुलाब तोड़े हैं मैंने
क्योंकि मैं
सिपाही हूँ-
बाग में बगावत का खतरा है
आग से बचाना है
भीड़ को मिटाना है

रचनाकाल: ०४-०४-१९७०