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सन्ध्याएँ / देवेन्द्र कुमार

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मटमैली गीली संध्याएँ ।

     सूरज बुझा बैंगनी, नीला
     बीत गया दिन पीला-पीला
हल्के हाथों के तकिए पर
सिर रखकर सो गई हवाएँ ।

     टूटे तारों का विज्ञापन
     खोया-खोया-सा अपनापन
दूर अँधेरे में घोड़े की
टाप बन गईं नई दिशाएँ ।

     इस टीले से उस टीले तक
     एक शब्द सिन्दूर मुबारक
सबसे भली नींद की गोली
जब चाहें खाकर सो जाएँ ।