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अचरज / गोपालशरण सिंह

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मैंने कभी सोचा, वह मंजुल मयंक में है,
देखता इसी से उसे चाव से चकोर है ।
कभी यह ज्ञात हुआ वह जलधर में है,
नाचता निहार के, उसी को मंजु मोर है ।

कभी यह हुआ अनुमान वह फूल में है,
दौड़कर जाता भृंग-वृंद जिस ओर है ।
कैसा अचरज है, न मैं जान पाया कभी,
मेरे चित्त में ही छिपा मेरा चित्त-चोर है ।