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एक साँझ / कीर्ति चौधरी

वृक्षों की लम्बी छायाएँ कुछ सिमट थमीं । धूप तनिक धौली हो, पिछवाड़े बिरम गई । घासों में उरझ-उरझ, किरणें सब श्याम हुईं । साखू-शहतूतों की डालों पर, लौटे प्रवासी जब, नीड़ों में किलक उठी, नीड़ों में किलक उठी, दिशि-दिशि में गूँज रमी । पच्छिम की राह बीच, सुर्ख़ चटक फूलों पर, कोई पर, कूलों पर, पलकें समेट उधर साँझ ने सलोना सुख हौले से टेक दिया। एकाएक जलते चिराग़ों को चुपके से जैसे किसी ने ही मंद किया । दुग्ध-धवल गोल-गोल खम्भों पर, छत पर, चिकों पर, वहाँ काँपती बरौनियों की परछाहीं बिखर गई । आह ! यह सलोनी, यह साँझ नई !

मैं तो प्रवासी हूँ : ऊँचा यह बारह-खम्भिया महल, औरों का । दुग्ध-धवल आँखों में, अंजन-सी अँजी साँझ कजरारी, बाँकी, कँटीली, उस चितवन-सी सजी साँझ औरों की । मेरी तो छज्जों, दरवाज़ों

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