Last modified on 6 मई 2011, at 11:34

घर / महेश वर्मा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:34, 6 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश वर्मा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> घर वैसा ही होगा जब …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

घर वैसा ही होगा जब हम लौटेंगे
जैसे शताब्दियों तक वैसे ही रहते हैं घर क़िताबों में

हम क़िताबों की धूल झाड़ेंगे
और घर में प्रवेश करेंगे
वहाँ चूल्हा वैसे ही जल रहा होगा
जैसा कहानी में जलता था और
लकड़ी बुझने से पहले शुरू हो गया था दूसरा दृश्य
वह बुढ़िया अभी भी आराम-कुर्सी में
सो रही होगी जो कुछ सौ साल पहले
ऊँघ गई थी आँच से गर्म कमरे के विवरणों के बीच
इसे एक गोली की आवाज़ ही जगा सकती है
लेकिन मालूम नहीं कब

हम चाहते भी थे कि दुर्भाग्य का वह पन्ना उधड़ कर
उड़ता चला जाए किसी रहस्य-कथा में

हम चाँदनी से भी आरामदेह एक बिस्तर पर लेट जाएँगे
जहाँ नींद की उपमा की तरह आएगी नींद
और हमें ढक लेगी

हम सपना देखेंगे एक घर का या क़िताब का