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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 23

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(सीताजी से बिदाईं)

(छंद 26से 28)

(26)
 
जारि-बारि, कै बिधूम, बारिधि बुताइ लूम,
 नाइ माथो पगनि, भो ठाढ़ो कर जोरि कै।

 मातु! कृपा कीजै, सहिजानि दीजै , सुनि सीय,
  दीन्ही है असीस चारू चूडामनि छोरि कै।।

कहा कहौं तात! देखे जात ज्यों बिहात दिन,
 बड़ी अवलंब ही , सो चले तुम्ह तोरि कै।।

तुलसी सनीर नैन , नेहसो सिथिल बैन,
 बिकल बिलोकि कपि कहत निहोरि कै।26।।

(27)

दिवस छ-सात जात जानिबे न, मातु! धरू,
 धीर, अरि -अंतकी अवधि रहि थोरिकै।

बारिधि बँधाइ सेतु ऐहैं भानुकुलकेतु
सानुज कुसल कपिकटकु बटोरि कै।।

 बचन बिनीत कहि, सीताको प्रबोधु करि ,
तुलसी त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि कै।

जै जै जानकीस दससीस-करि-केसरी,
कपीसु कूद्यो बात-घात उदधि हलोरि कै।27।।

(28)

साहसी समीरसुनु नीरनिधि लंघि लखि
लंक सिद्धपीठु निसि जागो है मसानु सो ।

 तुलसी बिलोकि महासाहसु प्रसन्न भई,
देबी सीय-सारिखी, दियो है बरदानु सो।।

बाटिका उजारि, अछधारि मारि, जारि गढ़,
 भानुकुल भानुको प्रतापभानु-भानु-सो।

करत बिलोक लोक-कोकनद, कोक कपि,
कहै जामवंत, आयो, आयो हनुमानु सो।28।