Last modified on 9 मई 2011, at 00:15

खंड-खंड पाखंड / शैलप्रिया

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:15, 9 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलप्रिया |संग्रह=अपने लिए / शैलप्रिया }} {{KKCatKavita}} <poe…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

समय
कई टुकड़ों में विभाजित है
मन भी तो

लगातार चुप रहने से
अर्थ चुक जाता है
दोस्त !
खंडित मन
प्रश्नचिह्न खड़े करता है
आदेशों के खोखलेपन को
कब तक नकारा जाए

इस तरह
ऊबते हुए टूटना है हमेशा-हमेशा

मंज़िल,
मंज़िल सच नहीं है
मंज़िल है ही नहीं
मंज़िल ही अंत है शायद

दोस्त तुझे क्या बताऊँ
अब तक ऊब हो चुकी है खोखलेपन से
संबंधों के निचले हिस्से भी खोखले हैं
जहाँ क्रमशः घिसती जा रही हूँ मैं