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समर्पण / शैलप्रिया

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वर्षा हर कोने को भिगो गई
मेरी उदासी
काली स्याही-सी
फैलती है मेरे ऊपर

मुझ पर अब बूँदों की चोटों का
कोई असर नहीं होता
न लहरों के थपेड़ों का
स्मृतियों के गुच्छे सिर पर
झूलते हैं
मेरे मर्म की कचोट का
अंग-अंग टूटता है