Last modified on 9 मई 2011, at 09:17

काम / नरेश अग्रवाल

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:17, 9 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश अग्रवाल |संग्रह=पगडंडी पर पाँव / नरेश अग्रव…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

काम कितने महत्वपूर्ण बन जाते हैं कभी-कभी
उनके सिवा कुछ भी नहीं सूझता उस वक्त
हो जाता है शरीर पसीने से लथ-पथ
और पॉंव जकड़ जाते हैं थकान से
मन में बस एक ही बात गूंजती है
कब काम खत्म हो और
लौट जायें अपने घर
लेकिन काम कभी खत्म होते नहीं
सौंप जाते हैं, दूसरे काम
अपनी जगह पर
जाते-जाते भी ।