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मेरे अनुभव / नरेश अग्रवाल

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मेरे अनुभव बहुत छोटे हैं
और अंधकार उससे बहुत बड़ा
मालूम है मुझे इन तक मेरे पांव कभी भी पहुंच नहीं पायेंगे
फिर भी-ऐ काली घटाओं, मैं तुम्हें प्यार करता हूं
प्यार करता हूं तुम्हें
क्योंकि तुम एक बेवश स्त्री की चीख हो
जो तुम्हारे चमकते हुए आक्रोश में शामिल है
और जानता हूं कि राख कभी काली नहीं होगी
ना ही कभी दफन होंगे काले चित्र,
किसी भी जलती आग से।
फिर भी मैं रात में दीये को देखता हूं
किसी सोये अंधेरे को जगाने की कोशिश करते हुए
और अंधेरा है निष्ठुर
मेरी थकान में भी मेरे साथ सो जाता है
जागने के साथ ही
टटोलता हूं अपने सारे सामान और वस्त्र
फिर से हो जाता हूं दिन के साथ
फिर भी ये अंधेरा परछाई की तरह
कभी मेरे कदमों के आगे
तो कभी पीछे लिपटे रहता है
और मुझे इसके बारे में जानने की फुर्सत भी नहीं।