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ऊँचाई / नरेश अग्रवाल

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क्या हमें किसी की ऊंचाई अच्छी नहीं लगती
या खाते हैं हम भय
सामने खड़े किसी ऊंचे कद से।
पहाड़ पर चढ़ जाता हूं मैं उसकी चोटी पर
तो पहाड़ से ऊंचा तो नहीं हो जाता
या नदी के तल से भी
झुका लूं अगर अपने आप को
फिर नीचा नहीं हो जाता नदी से।
हवा ही हमारी प्रेरणा का सबसे अच्छा हल
किसी भी ऊंचाई पर रह सकती है यह
वैसी ही हैं हमारी संवेदनाएं
अगर बढ़ती जाएं
फिर कोई भेद-भाव नहीं देखतीं।
सभी के पास एक नाभि है
जहां से जुड़े थे हम और दूर हुए
उसके निशान सभी की देह पर
इस तरह से सबका था एक ही आरंभ
और वे सोये रहे कई दिनों तक बिस्तर पर
और अपनी ही इच्छा शक्ति से सीख ली
जरुरत खड़े होने की
और जितनी मेरी जरूरत थी
उतनी ही दूरी मैं तय करता रहा।
मेरी ऊंचाई भी उतनी ही
जितना धरती से मैं ऊपर
बाकी भी सभी इसी तरह से।