Last modified on 12 मई 2011, at 23:31

तुमसे मिलकर / रवि प्रकाश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:31, 12 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवि प्रकाश |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> कभी बहुत अच्छा ल…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कभी बहुत अच्छा लगता तुमसे बात कर
जैसे गुबरैले सुबह का गोबर लिए
निकल जाते हैं कहाँ
मैं नहीं जानता !

कभी ऐसा लगता ,जैसे पूरी सुबह
ओस में भीगकर
धूल की तरह भारी हो गई हो,जो पाँव से नहीं चिपकती
दबकर वहीँ रह जाती !

जानने का क्या है ,मैं कुछ भी नहीं जानता
हाँ कुछ चीजें याद रह जाती हैं,
एक सूत्र तलाशती हुई !

मैं कुछ बोल नहीं पाता
रात का अँधेरा मेरी जीभ का स्वाद लेकर
सदी का चाँद बुनता है
जिसे ओढ़कर दादी सोती है ,और लोग
सन्नाटे की तरफ़ जाते हैं !

आवाज़ बुनने की कारीगरी मुझे नहीं आती,
मेरी आँख भारी रहती है
जिसे मैं स्याही नहीं बना पाता !

ताल के किनारे खड़ी रहती हैं नरकट की फसलें
जो तय नहीं हैं किसके हिस्से में जाएँगी !
हाथ के अभाव में,
अँगूठा लिखता है इतिहास, और
ज़बान के अभाव में
आँसू
पेड़ों से नाचती हुई पत्तियाँ गिरती रहती हैं
और दरवाज़े का गोबर खेत तक पहुँचता रहता है !

मैं रोता हूँ, और भटकता हूँ
शब्द से लेकर सत्ता तक
लेकिन मुझे, कोई अपने पास नहीं रख पाता

तुम भी कहाँ चली गई

यह बस रात का आख़िरी पहर है
जहाँ उजाले के डर से
चौखट लाँघता है आधा देश !