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किताब / नीलेश रघुवंशी

प्रकाशको, तुम करो किताबों का दाम

किताबें नहीं हैं महँगी शराब

पालो अपने अंदर इच्छा

दौड़ पड़ें बच्चे किताबों के पीछे

दौड़ते हैं जैसे तितनी पकड़ने को ।


मैं रखना चाहती हूँ

किताब को उतने ही पास

जितने नज़दीक रहते हैं मेरे सपने

किताबो, तुम साथ रहो

हमारी अधूरी इच्छाओं के

कहीं सिक्कों के जाल में

गुम न हो जाये इच्छाओं का अकेलापन ।


मैं उपहार में देना चाहती हूँ किताबें उन्हें

जो होते-होते मेरे छिप गए

लुका-छिपी के खेल में-

उन्हें भी एक किताब

जो हो नहीं सके मेरे कभी

बाईस बरस की इस ज़िंदगी में

लिख नहीं सकी एक किताब पर भी

अपना नाम ।


ओ महँगी किताबो

तुम थोड़ी सस्ती हो जाओ

मैं उतरना चाहती हूँ

तुम्हारी इस रहस्यमयी दुनिया में ।


तब भी

तुम

गए भी तो आँधी की तरह

मैं

बची रही लौ की तरह तब भी ।