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मेरा कक्ष / वसंत जोशी

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जानता हूं इस मिट्टी को
नहीं उपजाऊ-स्थल
नहीं मरुस्थल
इसके महकने की
मंद गति ऐसे
जैसे मुट्ठी में से
सरकता है समय
शांत
मंथर

तरेड़ नहीं पड़ती
आकालग्रसित चेहरों पर
लथपथ देह
झरती है
बबूल की छांव में
कंपित होता है
मंद-मंद हास्य

पहचानता हूं
इस मिट्टी को
नहीं सुगठित-सुडौल
रस-कस वाली काया
पर पानीदार आंखों के पीछे
मुस्कान बिखेरती है-
ठंडी-गुलाबी रात

खरोची नहीं जा सकती
अंगुलियों से
बारीक परत
पतली नहीं परत तरेड़ों की
रण और रत्नाकर
मुट्ठी भर लहरें
सूंधते ही सीधी
उतर जाती है
यह मिट्टी
स्पर्श करते ही
मेरे भीतर सरक आती है
पाता हूं तल में इसके मोती

चखा है
इस मिट्टी को
सुलगती हुई अगन में
भूख को ही सेक खाया
खिलखिलाती हंसी के संग

अथाह
हर्षित हो उठती है
यह मिट्टी
कभी-कभार वर्षा से
तो कभी-कभार
मेरे स्पर्श से