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सहेजना / शरद रंजन शरद

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बेतरतीब बढ़े जीवन में कुछ

तो छाँट डालेंगे उसे पौधे की तरह

और ध्यान रखेंगे यह भी

कि वह अलग तो नहीं हो रहा जड़ से


फ़ालतू चीज़ों का अम्बार लगे घर में

तो कर देंगे कूड़ेदान या कबाड़ी के हवाले

पर मनाएँगे उनमें से भी

सहेज लें कुछ चुनने वाले


कपड़े फटेंगे देह के

तो भी चलेगी नये सिरे से कैंची

बनेगा झोला पोंछना गेंदड़ा

दम तोड़ते रेशों के साथ

आएगा कुछ नया


जीमेंगे मन भर

पहले रखकर आगत के लिए गुड़ पानी

चिड़ियों को दाने

और मिट्टी को बीज


फलेगा फूलेगा घर

मगर यह भी सोचेंगे हर पल

सिर ढँकने के लिए हो छत

और खुले रहें दरवाज़े

तलवों को छील रही कंकरीट के आसपास

बची रहे कुछ नर्म मुलायम घास


जोतेंगे धरती उँगलियों के हल से

कि आहत नहीं हो जीवित कोशिकाएँ

बहाएँगे मगर रखेंगे आँखों में पानी

साँसों में हवा हथेलियों में ऊष्मा

बचाएँगे जागे हुए सपनों के सच


हमारा होना और करना

इस बात से है कि हम

ख़र्च करते वक़्त सहेज लेते हैं क्या-क्या

जर्जर से भी जोड़ लेते हैं कितना

कुछ फेंकते हैं तो इस भरोसे

कि उसकी धूल लौटकर आएगी घर

और बहुत झाड़ने पोंछने के बावजूद

छिपी रहेगी अतीत के अँतरों में


इस सृष्टि का लघुतम कण है मेरा हिस्सा

इसे ही मुझे सहेजना बरतना और बचा लेना

कज1 होती जहाँ-जहाँ धरती

चींटी की तरह इस शक्कर को दूसरी ओर रखना

और उसके भार भर मीठी याद छोड़ जाना।


1.कज-टेढ़ा, झुका हुआ।