Last modified on 15 मई 2011, at 21:45

आवभगत / शरद रंजन शरद

योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:45, 15 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद रंजन शरद |संग्रह=एक ही आखर / शरद रंजन शरद }} कह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कहीं गया तो उतार कर

घर में ही अपनी देह का खोल

सफ़र भर लाल कलेजा खोले

घूमता रहा लपलपाती जीभों के बीच


सीढ़ियाँ चढ़कर जान-बूझ कर कूदा ऊंची छतों से

लड़ने के सामान हमेशा चुने अपने से तगड़े

घृणा के लिए पास रखे जीने के सबसे ज़रूरी पात्र

प्रेम किया उन होठों से जिनमें थी

सबसे अधिक बारूद और आग


अपने ही शरीर की खिल्ली उड़ाते हुए

सच की तरह मैं चिल्लाया कई बार

सारे युद्धों में मुझे ही होना था पराजित

विध्वंसों में मेरा ही संहार


इतने पर भी पता नहीं क्यों

सभी जगह हो रही है मेरी खोज

हर रात घुसते अपने ही घर में चोर

मेरी हर साँस हर चाप पर होते चौकन्ने

और चतुर हाथों से उलटते-पुलटते

खूँटी पर टँगा मेरा पुराना कोट

अब तो और भी बदल गया है युग और समाज

लूटने काटने निगलने वालों को शायद

लग गया है एक अनोखी चीज़ का स्वाद


मगर उन सीनाज़ोरों को क्या सुनाई पड़ रही होगी

मेरे कोट की जेब से धीरे-धीरे बज रही

अपनी आत्मा की आवाज़ !