Last modified on 17 मई 2011, at 01:34

अजगर / समीर बरन नन्दी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:34, 17 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समीर बरन नन्दी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मैंने उसे पहल…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैंने उसे पहले पहल वर्णमाला के पहले अक्षर में
'अ' के पास भयानक अंदाज़ में बैठे देखा था ।

कुछ को उसे खिलौना बनाकर खेलते देखा
उमस की रात, कुछ जने उसे पेड़ से फँसाकर
चिडिया घर ले आए,
साधुओ के गले पड़े-पड़े मैंने उसे भीख माँगते देखा ।

कंक्रीट के जंगल में
जैसे बाईपास लेन आ मिलती है --
एक और लेन में, लेन फिर मुख्य लेन में --
उसी तरह सफ़ेद चिकना-चितकबरा
हरा-काला माँसल
उसकी जीभ जैसे करंट के दो नंगे तार
चुप पूँछ, भोली आँख
प्रखर नाक
और हर वक़्त उसका अधभरा पेट ...
और उसने, मेरे घर में खोह बना ली है ।

बीते दिन उसका इतना
सीढ़ी चढ़ आना -- मैंने अपनी आँखों से देखा है...।