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पंख / विष्णु खरे

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रचनाकारः विष्णु खरे

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मरा हुआ ताज़ा कबूतर

कोलतार की सड़क पर.

जैसे वंदनीय सर्प की पीठ पर

अक्षत रखा हो. उसकी रक्ताभ आँखें

अभी भी आते-जाते पहियों को देखती हैं.


एक जंगली कबूतर की

क्या कीमत हो सकती है ? शाम तक

जहाँ लाश थी वहाँ कुछ पंख हैं

जिन्हें दुविधा में पड़ा हुआ

गाँव का कुत्ता दूर से सूँघता है.