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दोस्त / रमेश नीलकमल

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दोस्तो!

तुम जो कहते हो

मैं नहीं मानता

और मैं जो कहता हूं

वह तुम भी तो नहीं मानते।

बेहतर है -

तुम अपनी कहो

मैं अपनी

आखिर कहते रहेंगे न

हम दोनों

कुछ-न-कुछ

अपनी-अपनी

एकमत होना जरूरी तो नहीं

जरूरी है हम दोनों का

कुछ-न-कुछ कहना

क्योंकि

हाथ पर हाथ रखे

चुप-चुप एक दूसरे को

खा जानेवाली नजरों से देखना

निहायत बेहूदी हरकत है

इसलिए मेरे दोस्त!

तुम जो भी कहना चाहते हो कहते रहो

मुझे भी जो कुछ कहना है

कहता रहूंगा बेहिचक

बिना इस बात की परवाह किए

कि हम एकमत नहीं

सहमत हैं

सहमत न होने पर।

9.2.1998