Last modified on 22 मई 2011, at 03:10

पत्थर / उमेश चौहान

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:10, 22 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पता नहीं कैसे
हो जाते हैं कुछ लोग
पत्थरों पर सिर पटकने की शौकीन
उद्यत हो उठते हैं करने को
आत्महत्यापरक चेष्टाएँ,
कुछ लोग निरन्तर करते रहते हैं प्रयास
पत्थर पर लकीरें खींचने का
भले ही उनसे वे
न बना पाएँ कोई / अर्थपूर्ण आकृति
तथा बैठे रहें बस
पत्थर पर एक बेतरतीब सी खुरचन छोड़कर ।

कुछ लोगों को नहीं भाती
मिट्टी की ख़ुशबू
उसकी उर्वरता का आधार ,नमी
उसमें पनपती हरियाली का एक भी कतरा
ऐसे ही कुछ लोग आजकल
ढकने में जुटे हुए हैं
पत्थरों से
एक-एक इंच भूमि को
हरियाली के तिनके -तिनके को उखाड़कर
पाटे जा रहे हैं चौराहों-नुक्कड़ों को
पत्थर की मूर्तियों से
चुनते जा रहे हैं / पत्थरों की दीवारें
पार्को मैदानों के चारों तरफ़
ताकि न देख सके कोई भी राहगीर
कहीं भी हरियाली का एक टुकड़ा

सत्तासीन पत्थर-प्रेमी
निरन्तर जुटाए जा रहे हैं
भाँति-भाँति के तराशे हुए पत्थर
पूरे के पूरे लोक-राजस्व को
निजी सम्पति जैसा मानते हुए
पत्थरों में समाया जा रहा हे राज-कोष
लुटती जा रही है लगातार
हमारी आँखों की बची-खुची तरलता
क्या होगा जब सूख जाएँगी
इन आँखों से सदा-सिंचित होती रही परधाराऐं !

क्या हम सब बाध्य हो जाएँगे
पत्थरों पर अपना सिर पटकने के लिए
उस दिन का / जब भरेगा अपने आप
इन पत्थर-दिल लोगों के पाप का घड़ा
जैसा सदियों से होता आया है
पत्थर के महलों में रहने वालों के साथ ।