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कहो नूरी / कुमार रवींद्र

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कहो नूरी !
झील फिर कब गीत होगी

याद तुमको
झील की हर लहर में कल
शाइरी थी
जल बहा था
शिव-जटाओं से
उसी से यह भरी थी

रहे सदियों
झील-तट पर पीर-जोगी

तुम रहीं चुप
रात-भर केसर-वनों में
आग दहकी
हाँ, सुबह से
एक भी चिड़िया
नहीं है आज चहकी

धुआँ-ओढ़े
वक़्त यह लग रहा ढोंगी

झील पर
चिनगारियाँ बिखरीं
शिकारे भी जले हैं
डरो मत
संतूर के सुर
झील के अब भी तले हैं

उन्हें साधो
तभी जल होंगे निरोगी