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धुला मन / हरीश करमचंदाणी

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मुझे इस बात का यकीन है
सुबह जब तुम उठोगी नींद के बाद
तुम भूल चुकी होगी सारी कड़वाहटे,
अपनी आदत के अनुसार
मुस्कराते हुए पॉँच मिनट के अन्दर
चाय की केतली, दो बिस्कुट मेरी के ट्रे में लिए
तुम आ बैठोगी बगल में धरी कुर्सी पर
पूछोगी फिर वही हर दिन का पहला सवाल
कुछ खास खबर है आज
अखबार से सिर निकाल
बुदबुदाउंगा... न नहीं नया कुछ नहीं
वही सब
तुम कपों में उधेलते हुए चाय
एक नजर अख़बार के पन्नों पर डालोगी
तुम मेरे उन पढ़े हुए पन्नो में से ही
कोई अच्छी खबर अनायास ढूँढा लोगी
जो पता नहीं कैसे मैं पढ़ ही नहीं
पाया जिसे पढ़कर सुनाते-सुनाते
गमले के बिरवे को संभालने लगोगी
जहाँ टूटे हुए पात पत्तों के बावजूद
खिले हुए हैं फूल
फूल तुम्हारे बालों में खिला ही रहता
कहना चाहता हूँ मैं
पर कहता नहीं
कि मेरे हाथ मैं है
तमाम बुरी खबरों से भरा अखबार

और मन भी तो अभी धुला नहीं