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मूंढै पाटी / नीरज दइया

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म्हैं म्हारै दुख बाबत कीं कैवूं किंयां ? छत्तीस बरसां सूं म्हैं म्हारै मूंढै तो पाटी बांध्योड़ी है । इत्ता बरसां पछै ई म्हांरी गूंगी जात नै थे ओळख नीं सूंपी ।

म्हैं लिखी जिकी बातां, थे बांची कोनी । म्हैं जिको कीं कैवूंला, बो सीधो-सीधो थे समझ नीं सकोला ; क्यूं कै थे म्हारी भासा जाणो ई कोनी अर जाणो ई हो..... तो मानो कोनी, थां नीं मानण री आगूंच धार राखी है । सुणो ! थे नीं मार सको म्हारी भासा नै । बां म्हांरै लोही मांय है अर थे कद तांई पीवोला लोही ?

कवि का इण समाज रै अंस रूप म्हैं करूंला कीं तो जतन । कवि रूप म्हैं म्हारी सांस भेळै गूंथ ली म्हारी भासा, एक सामाजिक इकाई रूप कैवूं आ ओळी एक- “आंख मींच कितरा दिन करोला अंधारो ।”

म्हारी सांस रै हरेक आंटै मांय अमूझै है भासा । भाईजी ! मूंढै पाटी कोई मा रै पेट सूं कोनी लायो ।