कौंधते शीर्षकों के बीच
साल दर साल
अब एक और साल
निगल गया
वक्तखोर इतिहास !
पर - इतिहासखोर आदमी
देता रहा भौंपूई नारे
करता रहा
युधिष्ठिरी सत्य वाले
अजगरी वादे !
और भूख-
सतपीढ़िये सेठ सी
बोरगत के बहाने
फैलाती गयी अपना साम्राज्य !
हवा में -
कम होती सांसों की
उलटी गिनती गिनते रहे
वर्गीकृत विद्वान !
काले भैंस जैसे बड़े-बड़े
शब्दों से लिख गये
मसीहाई पोस्टर।
ओ मसीहा !
ओ साथी !
क्रांति आयात नहीं की जाती !
उलट जरा इतिहास के पन्ने
और देख -
तेरी चटोरी जीभ ने
कितने चटखारे ले लेकर
चट कर दिये सुनहरे दिन।
किस सुबह की बात करता है तु ?
अब - किसकी इंतजार में है तु ?
बीतते जा रहे हैं
साल दर साल
जो होना है-आज होना है।
शर्त हटा दे मित्र-
कि ये तब करूंगा
और पूछ अपने आप से
कब करूंगा ?
वृद्ध होता जा रहा है समय।
छितराये पांखों में अब
नहीं बचा
एक भी काला रोआं।
यदि निगल गया आज को भी
वक्तखोर इतिहास-तब ?
बोल रे
अब नहीं तो कब ?