टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।
क्यूँ ज़ियाकार बनूँ, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फर्दा<ref>कल की चिन्ता</ref> न करूँ, महव<ref>खोया रहना</ref>-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँ
हमनवाँ मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।
जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझको
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम बदहन है मुझको
है बजा शेवा-ए-तसलीम में, मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम
साज-ए-ख़ामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम
ऐ ख़ुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्ज़ से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।
थी तो मौजूद अज़ल से ही तेरी ज़ात-ए-क़दीम
फूल था ज़ेब-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम ।
शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीं ।
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम ।
हमको जमहीयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी
वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी ।
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजर
कहीं थे मस्जूद<ref>पूज्य (जिसका सजदा किया जाय), शज़र</ref> ते पत्थर, कहीं माबूद<ref>पूज्य</ref> शजर
खूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसा की नज़र
मानता फ़िर कोई अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा
कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तेरा
बस रहे थे यहीं सल्जूक<ref>उत्तरपश्चिमी ईरान और पूर्वी तुर्की में दसवीं सदी का एक साम्राज्य, शासक तुर्क मूल के थे</ref> भी, तूरानी भी ।
अहल-ए-चीं चीन में, ईरान में सासानी<ref>अरबों की ईरान पर फ़तह के ठीक पहले के शासक, अग्निपूजक पारसी, अमुस्लिम</ref> भी ।
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी ।
इसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी भी ।
पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने ?
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किसने ?
थे हमीं एक तेरे मार का आराओं में ।
खुश्कियों में कभी लड़ते, कभी दरियाओं में ।
दी अज़ानें कभी योरोप के कलीशाओं<ref>चर्च, गिरिजाघर</ref> में ।
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं<ref>रेगिस्तान</ref> में ।
शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों की
कलेमा<ref> ये कहना कि 'अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका संदेशवाहक था', इस्लाम का सबसे ज्यादा प्रयुक्त वंदनवाक्य</ref> पढ़ते थे हम छाँव में तलवारों की ।
हम जो जीते थे, तो जंगों की मुसीबत के लिए
और मरते थे तेरे नाम की अज़मत के लिए ।
थी न कुछ तेग़ ज़नी अपनी हुकूमत के लिए
सर बकफ़<ref> हथेली पर</ref> फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए ?
कौम अपनी जो ज़रोमाल-ए-जहाँ पर मरती
बुत फरोशी के तेवर बुत-शिकनी क्यों करती ?
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे
पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे ।
तुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे
तेग<ref>तलवार</ref> क्या चीज़ है, हम तोप से लड़ जाते थे ।
नक़्श तौहीद<ref>त'वाहिद, एकत्व. यानि ये कहना कि अल्लाह एक है और उसके स्वरूप, तस्वीर, मूर्तियां या अवतार नहीं हैं, अरबी गिनती में वाहिद का अर्थ 'एक' होता है ।</ref> का हर दिल पे बिठाया हमने
तेरे ख़ंज़र लिए पैग़ाम सुनाया हमने ।
तू ही कह दे के, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर<ref>उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में पेशावर के पास का दर्रा जिससे होकर कई विदेशा आक्रांता भारत आए; सिकंदर, बाबर और नादिर शाह इनमें से कुछ उल्लेखनीय नाम हैं ।</ref> किसने?
शहर कैसर<ref>सीज़र का अरबी नाम, सीज़र रोम के शासक की उपाधि होती थी</ref> का जो था, उसको किया सर किसने?
तोड़े मख़्लूक ख़ुदाबन्दों के पैकर<ref>आकृति, स्वरूप</ref> किसने?
काट कर रख दिये कुफ़्फ़ार<ref>काफ़िर का बहुवचन</ref> के लश्कर<ref>सेना</ref> किसने?
किसने ठंडा किया आतिशकदा<ref>अग्निगृह, इस्लाम के पूर्व ईरान के लोग आग और देवी-देवताओं की पूजा करते थे</ref>-ए-ईरां को ?
किसने फिर ज़िन्दा किया दज़तराए-ए-यज़दां को ?
कौन सी क़ौम फ़क़त<ref> सिर्फ़</ref> तेरी तलबगार हुई ?
और तेरे लिए जहमतकश-ए- पैकार हुई ?
किसकी शमशीर<ref>तलवार</ref> जहाँगीर, जहाँदार हुई ?
किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई ?
किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थे ?
मुँह के बल गिरके 'हु अल्लाह-ओ-अहद' कहते थे ।
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
हिब्ला रूहों के ज़मीं बोश हुई क़ौम-ए-हिजाज़ ।
एक ही सम्त में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़
न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़ ।
बन्दा ओ साहिब ओ मोहताज़ ओ ग़नी एक हुए
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए ।
महफिल-ए-कौन-ओ मकामे सहर-ओ-शाम फ़िरे
महल-ए-तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-जाम फिरे ।
कोह-में दश्त में लेकर तेरा पैग़ाम फिरे
और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे ?
दश्त-तो-दश्त हैं, दरिया भी न छोड़े हमने
दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने ।
सफ़ा-ए-दहर से क़ातिल को मिटाया हमने
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।
तेरे काबों को जबीनों पे बसाया हमने
तेरे क़ुरान को सीनों से लगाया हमने ।
फिर भी हमसे ये ग़िला है कि वफ़ादार नहीं ?
हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं ।
उम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं
हिज़ वाले भी हैं, मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार भी हैं ।
इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल भी हैं, हुशियार भी है
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है ।
रहमतें हैं तेरी अगियार के काशानों पर
बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर ।
बुत सनमख़ानों में कहते मुसलमान गए
है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए ।
मंजिले-ए-दहर से ऊँटों के गुनीख़्वान गए
अपनी बगलों में दबाए हुए क़ुरान गए ।
अंददन कुफ़्र है, एहसास तुझे है कि नहीं
अपनी तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहीं?
ये शियाकत नहीं, हैं उनके ख़ज़ाने मामूर
नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउर
कहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर
और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वाबा-ए-हुज़ूर
अब वो अल्ताफ़ नहीं, हमपे नायास महीं
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं ?
क्यों मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब
तेरी कुदरत तो है वो, जिसकी न हद है न हिसाब
तू जो चाहे तो उठे सीना-सहरा से हुबाब
रहरवा-ए-दश्त शाली जदा-ए मौज-ए सराब
बाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी है
क्या तेरे नाम पे मरने के एवज़ भारी है ?
बनी अगियार की अब चाहने वाली दुनिया
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया ।
हम तो रुक़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया
फ़िर न कहना कि हुई तौहीद से खाली दुनिया ।
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे ?
तेरी महफिल भी गई चाहनेवाले भी गए
शब की आहें भी गईं, जुगनूं के नाले भी गए
दिल तुझे दे भी गए ,अपना सिला ले भी गए
आके बैठे भी न थे और निकाले भी गए
आए उश्शाक, गए वादा-ए-फरदा लेकर
अब उन्हें ढूँढ चराग-ए-रुख़-ज़ेबा लेकर
दर्द-ए-लैला भी वहीं, क़ैस का पहलू भी वही
नज्द के दश्त-ओ-जबल में रम-ए-आहू भी वही
इश्क़ का दिल भी वही, हुस्न का जादू भी वही
उम्मत-ए-अहद-मुरसल भी वही, तू भी वही
फ़िर ये आज गुस्तगी, ये ग़ैर-ए-सबब क्या
अपने शहदारो पर ये चश्म -ए-ग़ज़ब क्या
तुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी को छोड़ा ?
इश्क को, इश्क़ की आशुक्तासरी को छोड़ा
रस्म-ए-सलमानो-कुवैश-ए-करनी को छोड़ा
आग तपती सी सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हवसी रखते हैं ।
इश्क़ की ख़ैर, वो पहली सी अदा भी न सही
ज्यादा पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रिज़ा भी न सही ।
मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-ख़िबलानुमा भी न सही
और पाबंदी ए आईना ए वफ़ा भी न सही ।
कभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई है
बात कहने की नहीं, तू भी तो हरजाई है ।
सर-ए-फ़ाराँ से किया दीन को कामिल तूने
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तूने ।
आतिश अंदोश किया इश्क़ का हासिल तूने
फ़ूँक दी गर्मी-ए-रुख्सार से महफिल तूने ।
आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं
हम वही शोख़ सा दामां, तुझे याद नहीं ?
वादी ए नज़्द में वो शोर-ए-सलासिल न रहा
कैस दीवाना-ए-नज्जारा-ए-महमिल न रहा
होसले वो न रहा, हम न रहे, दिल न रहा
घर ये उजड़ा है कि तू रौनक-ए-महफ़िल न रहा ।
ऐ ख़ुसारू कि आइ-ए-बशद नाजाई
दे हिजाब-ए-महफ़िल-ए-माबाई
वादाकश ग़ैर हैं गुलशन में लब-ए-जू बैठे
सुनते हैं जाम बकफ़ नग़मा-ए-कू-कू बैठे
दूर हंगामा-ए-गुल्ज़ार से यकसू बैठे
तेरे दीवाने भी है मुंतज़र-ए-तू बैठे ।
अपने परवाने को फ़िर ज़ौक-ए-ख़ुदअफ़रोज़ी दे
क़ौम-ए-आवारा इनाताब है फिर
ले उड़ा बुलबुल-ए-बेपर को मदाके परवाज
तू ज़रा छेड़ तो दे तश्ना -ए-मिज़राज़ साज
नगमें बेताब है तारों से निकलने के लिए
मुश्किलें उम्मते मरदूम की आसां कर दे ।
नूर-ए-बेमायां को अंदोश-ए-सुलेमां कर दे ।
हिन्द के नशीनों को मुसल्मान कर दे
हसरतें तेरी न ईमाम
बू-ए-गुल ले गई बेरूह-ए-चमन
क्या क़यामत है
अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ
एक बुलबुल है कि है महव-ए-तरन्नुम अबतक ।
पत्तिया फूल की झड़-झड़ की परेशा भी हुई
डालियां महरूम
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी न
(कविता ख़त्म नहीं हुई और इसमें बहुत अशुद्धियाँ है । इन्हें शब्दार्थों के साथ शीघ्र ही सुधारा जाएगा । सहयोग का स्वागत है।)
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