अब बहुत
छलने लगी है छाँव
चलो, चलकर धूप के हो लें!
थम नहीं पाते
कहीं भी पाँव
मानसूनी इन हवाओं के
हो रहे
पन्ने सभी बदरंग
जिल्द में लिपटी कथाओं के
एक रस वे बोल
औरों के
और कितनी बार हम बोलें
दाबकर पंजे
ढलानों से
उतरता आ रहा सुनसान
फ़ायदा क्या
पत्रियों की चरमराहट पर
लगाकर कान
मुट्ठियों में
फड़फड़ाते दिन
गीत-गंधी पर कहां तोलें!