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वसीयत / पुरुषोत्तम अग्रवाल

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छूट गईं जो अधूरी,
मुलाक़ातें तुम्हें देता हूँ
हों न सकी जो बातें,
तुम्हें देता हूँ
जो कविताएँ लिख न पाया,
तुम्हें देता हूँ
जो क़िताबें पढ़ न पाया,
तुम्हें देता हूँ
मर कर भी न मरने की यह वासना
स्मृति की बैसाखियों पर जीने की यह लालसा
तुम्हारी कल्पनाओं,
यादों के आकाश में
तारे की तरह टिमटिमाने की यह कामना
यह भी तुम्हें देता हूँ
जहाँ से शुरू होती है
आगे की यात्रा
वहाँ से साथ रहना है सिर्फ़
वह जो किया अपना अनकिया
सब का सब पीछे छोड़
कभी वापस न आने का वादा
तुम्हें देता हूँ ।