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प्रतीक्षा / ज्ञान प्रकाश चौबे

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दीवारों पर
बनाते हुए तुम्हारी परछाइयाँ
फ़र्श पर उगाई
कई हरी फ़सलें
बिस्तर पर लिखा करवटें
कोने में सुगबुगाते सपनों से कहा
शान्त रहो

प्रत्येक आहट पर
कमरे ने ओढ़ ली मुस्कराहट
बहुत दिनों बाद
क़िताबें छुट्टी पर गईं
सौ वॉट के टिमटिमाते बल्ब ने
अपना ज़र्द चेहरा छुपाते हुए
ग़ुम हो गया दुधिया रोशनी में

नींद ने भेजी मेरे पास
अवकाश की सूचना
और धड़कनें पूरे दिन
करती रहीं भागमभाग
गुड़हल के फूल हँसते रहे पूरे दिन
पलकों की आँखों से कुट्टी देखकर

दरवाज़े ने
हवा के कान में
फुसफुसाते हुए कुछ कहा
खिड़कियाँ मुस्कराईं
रोशनदान कुछ नाराज़ रहा इनसे
दूसरी तरफ़ चेहरा घुमाए
बतियाता रहा चिड़ियों के साथ

आख़िरकार
शाम उतरी आँगन में
रात भी पीछे से दरवाज़े से
चुपके पाँव आईें
उस रात कोई नहीं सोया
रात भी नहीं