Last modified on 23 जून 2011, at 23:51

कारीगर / शहंशाह आलम

योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:51, 23 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहंशाह आलम |संग्रह=वितान }} {{KKCatKavita‎}} <poem> तुम्हारे ह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


तुम्हारे ही हुनरमंद हाथ
हमें दिखते हैं सपनों में
हज़ार-हज़ार वर्षों से

तुम्हारी ही नफासत
तुम्हारा ही समर्पण
तुम्हारी ही समझदारी
तुम्हारी ही कला
तुम्हारी ही चिंता
झलकती है
इस रहस्यलोक में

शहर के शहर गिरते हैं
फिर तुम्हारे ही हाथों
होते हैं खड़े रंगों से सजे

तुम्हारे ही हाथों बने रास्ते हैं
यहां से वहां सार्थक दूब से भरे

हमें पता है
तुम न कोई पैग़म्बर हो
न कोई देवता
न सप्तर्षि
न कोई जादूगर-वादूगर
बिलकुल हमारे पिता की तरह हो

तुम हो इसीलिए
ख़्वाबे-दरो-दीवार है
और यह पृथ्वी है
घरों से भरी हुई।