भावभिनी श्रधांजलि देखा
समर्पित ज्येष्ठ पिताश्री- "स्व राजवल्लभ तिवारी"
॥१॥
अपने ज़िन्दगी में कई बार ,
खुदको खुदसे हारते और जीतते देखा।
अपने ही अन्दर मैंने वाटरलू ,
और पानीपत के जंग को देखा।
हाँ, हारा भी हूँ कई बार,
अपने मंजिल के पथ पर कई बार
खुदको मैंने फिसलते देखा।
पर चिटीयों की तरह फिसलकर,
हर बार खुद को सम्हलते देखा।
॥२॥ हर पल चलती साँसों को मैंने आते और जाते देखा। जीवन के कारवाँ में परिजनों को, मिलते और बिछड़ते देखा। नन्हीं उँगलियों को तुतलाती बोलीयों में सहारा खोजते देखा। और जवान कन्धों को बुढे लाचारों का सहारा भी बनते देखा ।
॥३॥ अपने "वज़ूद" को बचाने की खातिर कई बार खुद को लडखडाते देखा। कुछ सपने तो पुरे हुए पर, कुछ सपनों को बिखरते देखा। बूढी पथराई आँखों में, अश्कों का शैलाब देखा। आज अपने वज़ूद के बोझ से, खुद को मैंने थकते देखा।
॥४॥ आज सफ़र समाप्त हुआ मेरा, साँसों को विराम लगी, मेरे अधूरे सपनों को , प्रियजनों की आँखों में देखा। मेरी थमती साँसों को देख, तुझमें जो भावना जगी । प्रियवर तेरे अश्कवार आँखों में, मैंने भावभिनी श्रधांजलि देखा।
शेखर तिवारी "क्रान्ति"