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इतनी सपाट ज़िंदगी / रणजीत

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कोई ख़त
कोई अख़बार नहीं
घुप्प जमा हुआ अँधेरा है, चुप्पी है
कोई शोला, कोई लपट, कोई अंगार नहीं ।

कोई स्नेह-सिक्त शब्द
कोई रोमांचक संदेश
कोई प्रफुल्ल कपोल
कोई प्रशस्त ललाट
कोई उठी हुई मुट्ठी
कोई कड़कती हुई आवाज़
कहीं भी कुछ भी तो दुर्निवार नहीं ।

कोई दुस्साहसपूर्ण काम
कोई उछाल देने वाली ख़बर
किसी ऐतिहासिक परिवर्तन का
कोई भी आसार नहीं !

दूर-दूर तक कोई पत्ता तक नहीं खड़कता
इतनी सपाट इतनी मुर्दा ज़िन्दगी
इतनी उदास इतनी वीरान राहें
कब तक?
आख़िर कब तक ?