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बरगद / भारतेन्दु मिश्र

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मैं घना छतनार बरगद हूँ
जड़ें फैली हैं अतल-पाताल तक।

अनगिनत आए पखेरू
थके माँदे द्वार पर
उड़ गए अपनी दिशाओं में
सभी विश्राम कर
मैं अडिग-निश्चल-अकम्पित हूँ
जूझकर लौटे कई भूचाल तक।

जन्म से ही ग्रीष्म वर्षा शीत का
अभ्यास है
गाँव पूरा जानता
इस देह का इतिहास है
तोड़ते पल्लव, जटायें काटते
नोचते हैं लोग मेरी खाल तक।


अँगुलियों से फूटकर
मेरी जड़ें बढ़ती रहीं
फुनगियाँ आकाश की
ऊँचाइयाँ चढ़ती रहीं
मैं अमिट अक्षर सनातन हूँ
शरण हूँ मैं
लय विलय के काल तक।