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ठहाके ! / माया मृग

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ठहाके,
खाली ज़मीन हैं कि
कि जो इसमें बोयेंगे
वही उग आयेगा,
दूर-दूर तक
किसने बीज डाला और
कौन काटेगा फसल,
ये प्रश्न हवा हो जायेगा।

कि ठहाके हवा हैं
जिसमें तैरते रहते हैं
हजारों-लाखों सवाल,
हजारों-लाखों जवाब !
कौन इन सवालों को, इन
जवाबों को
आवाज देगा कि
ये सवाल बेमानी है।
कि ठहाके आवाज़ हैं,
इन्हें हँसना है कि रोना,
ये शून्य से कहीं तय होता है,
यूं क्रमशः शून्य होते चले आते हैं
ठहाके।

कि ठहाके शुन्य हैं
गणना शुरू करेंगे,
गणना को खत्म करेंगें,
फिर से खाली हो जायेंगें, ठहाके !

कि ठहाके खाली सफेद कागज हैं
इन पर महाभारत लिखा जायेगा,
कि बुद्ध का सवस्ति पाठ,
ये आपके भीतर से आयेगा।
क्योंकि आप,
जो भीतर है-उसी को वाणी देंगे।
कि ठहाके भीतर से आते हैं,
कि ठहाके ईमानदार होते हैं,
और दौड़-दौड़ कर चारों ओर से
आपके लिए जुटा लाते हैं,
हजार-हजार प्रतिध्वनियां
कि ठहाके आपकी
प्रतिध्वनियां हैं।