Last modified on 5 जुलाई 2007, at 03:28

पटाक्षेप / सुधीर सक्सेना

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:28, 5 जुलाई 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह= }} अब लीलाओं के लिए ज़रूरी नहीं ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


अब लीलाओं के लिए

ज़रूरी नहीं रहा मंच

न ज़रूरी रहे

नट-नटी और सूत्रधार.


ज़रूरी नहीं रही मंच सज्जा

कि अब समूची धरती है लीला का रंगमंच

और तो और

ज़रूरी नहीं रहा अंगराग,

न पीतांबर, न मुकुट,

अब वर्गीकृत नहीं रहीं भूमिकाएँ

कि चाहिए एक अदद धीरोदात्त नायक,

एक अदद रूपगर्विता मुग्धा नायिका,

और एक अदद विदूषक सहचर.


अब खल विदूषक है

और विदूषक नायक

और नायक क्लीव

अब युग नहीं रहा सुखांत या दुखांत का

कि लीला पुरुष की लीला

कभी ख़त्म नहीं होती

चलती रहती है लीला अहर्निश अविराम

पटकथा से पूर्णतः विलोपित कर दिया गया है

शब्द पटाक्षेप.