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मिल गयी क्या तेरी आँखों में झलक प्यार की थी! / गुलाब खंडेलवाल


मिल गयी क्या तेरी आँखों में झलक प्यार की थी!
आख़िरी वक़्त तड़प और ही बीमार की थी

यों चलाई थी छुरी उसने गले पर हँसकर
हम ये समझे कि अदा यह भी कोई प्यार की थी

उसको गुमनाम ही रहने दो कोई नाम न दो
वह जो ख़ुशबू सी निगाहों में इंतज़ार की थी

दोष लहरों का नहीं था न किनारों का क़सूर
दिल की पतवार तो ख़ुद ही बिना पतवार की थी

भेद तेरा उसे कोयल न कह गयी हो, गुलाब!
आज बदली हुई चितवन भी कुछ बहार की थी