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किले बियाबान / कुमार रवींद्र

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खंडहर हैं रंगमहल
       किले बियाबान
बूढ़ी मीनारों में हाँफती थकान
 
कानो रही
टूटी दीवारों के पार
सन्नाटों में डूबी
स्वप्न की पुकार
 
और दूर तक फैला जर्जर सुनसान
 
गूँजतीं हवाएँ
तहखानों में बंद
पथरीले आँगन में
है अतीत-गंध
 
काई-ढँके जल के हैं चेहरे अनजान
 
सूने गलियारों की
गूँगी है साँस
सीढ़ी पर बैठा है
अँधा इतिहास
 
मस्जिद के गुंबज में क़ैद है अज़ान