महानगरी
राजधानी धूप की
बुन रही गहरे अँधेरे
घूमता है घनी सडकों पर
एक बहरा शोर
साँझ तक फैली गुफाओं का
है न कोई छोर
सोच में डूबी
निकलती हैं
यातनाएँ हर सबेरे
बहुत उजले और ऊँचे हैं
रोशनी के पुल
किन्तु उनकी छाँव में पलते
सिर्फ़ अँधे कुल
लोग कंधों पर
उठाए घूमते
उजड़े बसेरे
भीड़ है-
बाज़ार में उत्सव और मेले हैं
छली चेहरों की नुमायश है
घर अकेले हैं
एक छल है
आइनों का
सभी को परछाईं घेरे