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इतनी उलझन क्यों आनन पर, मुझको आधा ही मन दे दो / गुलाब खंडेलवाल

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इतनी उलझन क्यों आनन पर, मुझको आधा ही मन दे दो

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एक हाथ में रूप-सत्य दूसरा आँकता रहे अगम को
प्रणय-परस में प्रथम प्रहर हो, पिछला ढूँढा करे चरम को
सुषमा को भुजपाशों में भर मैं आदर्श बहुत लिख दूँगा
तुम हो तो साधना अमर है, मिलन मिटाता रहता भ्रम को
आधा रहे रहस्य-समस्या, मुझको आधा ही तन दे दो
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माना स्मृतियों में कुछ है, जो अटक-अटक आता साँसों में
माना प्राणों में कुछ है, जो खटका अरता भुजपाशों में
अधर-कमल-पँखुरी में माना, कोई मर्दित मधुप छिपा है
माना, द्विधा-अंकुर कोई उग आया है विश्वासों में
किन्तु मुझे तो अधिक मधुर यह कसक रहा आलिंगन दे दो
 
दर्पण में प्रतिबिंब सहस्रों कब उसको धुँधला कर पाते!
कोटि नयन के डोरे, शशि की उज्ज्वलता तिल भर हर पाते!
विद्युत-सी जग आलोकित कर, धूमिल कभी हुई सुन्दरता!
नयी कोंपलें फूटा करतीं, जब पीले पत्ते झड़ जाते
चिर-जीवन का साथ न तो भी मुझे एक परिचित क्षण दे दो
इतनी उलझन क्यों आनन पर, मुझको आधा ही मन दे दो