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दोस्तों की दोस्ती और घात से गुज़रे / अशोक आलोक

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दोस्तों की दोस्ती और घात से गुज़रे
ज़िन्दगी के खुरदरे हालात से गुज़रे
ख्वाब की कलियां सजाए आशियाने में
धूप ऑंखों में लिए बरसात से गुज़रे
एक लम्हा चैन का उस ज़िन्दगी में क्या
थरधराते होंठ के जज़्बात से गुज़रे
जुर्म के सारे फ़साने सामने आए
जब भी बेबस की सुलगती बात से गुज़रे
साफ चेहरा वक्त का जी भर तभी देखा
ज़िन्दगी के खेल में जब मात से गुज़रे
फ़िक्र के साये में जीने का सबब है क्या
क्या पता है आपको किस बात से गु्ज़रे