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मैं भावों का राजकुमार / गुलाब खंडेलवाल

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मैं भावों का राजकुमार
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जिधर देखता मैं वसंत बिछ जाता भू पर, उठती ऊपर दृष्टि
बाज सदृश जब, यह सारा संसार
उठ जाता है स्वर्गलोक तक, पाने को मेरी करुणा की वृष्टि
लघु रज के कण करते नित श्रृंगार
भावों की भाषा जैसे अनुगामी, निखिल समष्टि रूप में व्यष्टि
अम्बर मैं, भूतल मैं, पारावार
शून्य, काल, नक्षत्र, ग्रहों पर जाता हूँ टेकता अगम की यष्टि
कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड खोलते द्वार
दिशाएँ करती जय-जयकार
. . .
विश्व मंच पर प्रकट हुई जो शेक्सपीयर की अद्भुत नाट्य-कला-सी
पहने कोमल कविता का गलहार
कालिदास कवि की कुटिया में खेली मृगछौनों से शकुन्तला-सी
छवि की मोहक प्रतिमा जो सुकुमार,
मानस की मानसी, सूर के अंध नयन की ज्योति प्रखर चपला-सी
कोटि-कोटि कंठों की प्राणाधार
चंचल मधु-अंचला, खड़ी हिमनग पर, हिमनग-सी उज्जवल, अचला-सी
आज वही शारद-हासिनी उदार
दे रही मुझे विजय-उपहार

मैं भावों का राजकुमार