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पावस-प्रिया / गुलाब खंडेलवाल

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रिमझिम रिमझिम बरस रही हैं घनी घटायें पावस की
दूबों से पूरित मेरे आँगन में पहरों से आकर.
सजनी! आज चतुर्दिक से रजनी है घिरी अमावस की,
कभी गरजते घन, विद्युत से कभी चमक उठता अम्बर.
 
इतनी दूर हुई तुम मुझसे जितनी दूर कल्पना से
वस्तु सत्य, मैं कैसे मन को बहलाऊँ इन घड़ियों में
काली रजनी की, जब प्रतिभापूर्ण काव्य की रचना-से
तड़ित-चकित घन बरस रहे हैं शत-शत मुक्ता-लड़ियों में.
 
इस अँधियारी रजनी में, अंचल में विद्युत-दीप सँवार
प्रेयसि! क्या आयी हो तुम श्यामाभिसारिका-सी पल भर
मेरे इस एकांत कक्ष में, कान्त कामना-सी सुकुमार
दूर देश से, मेघों-सी ही झंझानिल गति से चलकर?
 
नील तिमिरमय वसन तुम्हारा, बूँदें चल नूपुर-मणियाँ,
सुनता मैं रिमझिम आँगन में, प्रिये! तुम्हारी पग-ध्वनियाँ