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तुम्हारी हँसी / अनिल जनविजय

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(रीताकृष्ण सिंह के लिए)


घोर सर्दियों के बाद

जैसे आया हो वसन्त

और खिले हों रंग-बिरंगे फूल

वैसे ही है तुम्हारी हँसी


वैसी ही शान्त

वैसी ही कोमल

मनोहर और सरल

जैसी तुम ख़ुद हो

इस वसन्त में


रूप का निर्झर सोता हो तुम

स्नेह का अप्रतिम स्रोत

झरता है तुम्हारा प्रेम हँसी में

हहराता हुआ बिखरता है

और समो लेता है सब-कुछ


हवा की तरह है तुम्हारी हँसी

बहती चली जाती है

यहाँ से वहाँ तक

बिना ठहरे, बिना रुके

अपने कोमल स्पर्श का आभास देती


हाँ

तुम हवा हो

मेरे लिए

जीवन हो तुम और तुम्हारी हँसी


(रचनाकाल : 1988)