क्यों नहीं लगती कविता सहचरी-प्रिया
क्यों नहीं बंधुत्व की शिखा जलती
आलोकित करती मन के घर-आँगन
क्यों नहीं विद्रोह पैदा होता गहरी करुणा से
क्यों नहीं यथार्थ के भीतर रागमयता की धार बहती
आप्लावित करती रस-विभोर
कुछ चालू नुस्खों
चालू मुहावरों
और शब्दों के क्रीड़ा-भाव से
उपजी कविता
समकालीनता की मुहर ख़ुद पर लगवा लेती है
और कवि
अपने आस-पास के माहौल में
पसर कर बैठ जाता है
और बैठा रहता है
कोई नहीं पूछता कि ऎसा क्यों है?
(रचनाकाल: 1991)