क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िंदा
पिक कूकेगा।
लोक रोपता
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।
बादल रोया
धरती भी उमगी
फसल उगी।
स्वागत हुआ
दूब-धान आया
लोक जीवन।
मरने न दो
परंपराएँ कभी
बचोगे तभी।
नदी बनाता
सोख हवा से नमीं
वृद्ध पहाड़।
छीन लेता है
धनी मेघों से जल
दानी पहाड़