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क्यों देखा था तुमने / त्रिलोक महावर

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लड़की
क्यों देखा था तुमने
आर-पार उतरने वाली निगाहों से

नर्स की तरह क्यों फेरा था
दुखते सिर पर हाथ
निश्छल मुस्कान से
क्यों की थी कोशिश
मैं न रहूँ उदास

शाम को क्षितिज की जगह
तुम्हारी ओर हों
मेरी आँखें
क्यों रोकती रही
कविता लिखने से
अपने गालों से स्पर्श करा
इन हाथों को
क्यों सौंपा कोई कविता-सँग्रह
जिसे पढ़ते-पढ़ते
इतनी दूर निकल आया मैं

यहाँ कंक्रीट के जंगल नहीं हैं
न ही कैक्टस की विविधता
गुलमोहर और गुलाब से परे
यहाँ हरी-हरी दूब है
जिस पर चमक रही हैं
ओस की बूँदें

यहाँ बनाना चाहता हूँ
छोटा-सा घर
और तुम कहती हो
लौट जाओ ।