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संस्कार / कीर्ति चौधरी

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अब र किसी को भला कहूँ क्या !
ख़ुद यह मेरा मन
असफल करता रहता है
मेरी उक्ति सदा
प्रतिदिन प्रतिक्षण उससे बदला लेना है
उससे नफ़रत करनी है
इस पर आड़े सीधे, जैसे भी बने
मगर हारों की ज़िम्मेदारी रखनी है...
पर मिलने पर बस
वही नमन वंदन सिहरन ।