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अरुणकांत जोगी भिखारी तुम हो कौन / काजी नज़रुल इस्लाम

अरुणकांत जोगी भिखारी तुम हो कौन
नीरव हास्य लिए तुम द्वार पर आये
प्रखर तेज तव न जाए निहारी
रास-विलासिनी मई आहिरिणी
तव श्यामल-किशोर-रूप ही पहचानूं
आज अम्बर में ये कैसा ज्योति पुंज है पसरा
हे गिरिजापति गिरिधारी तुम हो कहाँ

अम्बर-अम्बर महिमा तव छाया
हे!ब्रजेश भैरव ! मैं ब्रजबाला
हे! शिव सुन्दर व्याघ्र-चर्म धारी
धर नटवर वेश पहनो नीपमाला

नव मेघ चन्दन से छुपा लो अंग ज्योति
प्रिय बन दर्शन दो हे! त्रिभुवन पति
मैं नहीं हूँ पार्वती , मैं श्रीमती
विष तज कर बनो बांसुरी धारी

अब यही कविता मूल बंगला में पढ़िए


অরুণকান্তি কেগো যোগী ভিখারী।
নীরবে হেসে দাঁড়াইলে এসে
প্রখর তেজ তব নেহারিতে নারি।

রাস-বিলাসিনী আমি আহিরিণী
শ্যামল-কিশোর-রূপ শুধু চিনি
অম্বরে হেরি আজ একি জ্যোতি-পুঞ্জ?
হে গিরিজাপতি! কোথা গিরিধারী।

সম্বর সম্বর মহিমা তব
হে ব্রজেশ ভৈরব! আমি ব্রজবালা,
হে শিব সুন্দর! বাঘছাল পরিহর-
ধর নটবর বেশ পর নীপমালা।

নব-মেঘ-চন্দনে ঢাকি’ অঙ্গগজ্যোতি
প্রিয় হ’য়ে দেখা দাও ত্রিভুবন-পতি,
পার্ব্বতী নহি আমি, আমি শ্রীমতী,
বিষাণ ফেলিয়া হও বাঁশরী-ধারী।।