Last modified on 2 अगस्त 2007, at 23:50

टोपी / स्वप्निल श्रीवास्तव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:50, 2 अगस्त 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव |संग्रह=ईश्वर एक लाठी है }} उन्हो...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


उन्होंने टोपी पहनी और उतर गए भीड़ में

जैसे भीड़ में उतरते हैं जेबकतरे

जेब में अपनी चोख उंगलियाँ छिपाए हुए

भीड़ में तलाशते हुए अपना शिकार


लोगों ने गौर से उनकी टोपी की ओर देखा

और कहा,

'देखो, सफ़ेद कबूतर की तरह दुलादम ख़ूबसूरत टोपी'


बिल्कुल एक नन्हें छाते की तरह

जो सिर्फ़ ढक सकती है एक आदमी का बदसूरत सिर


टोपी पहने हुए वे मंच पर पहुँच गए

भाषण के लिए

एक ज़ोरदार विषय चुना--'देश'


वे बोलते गए

बीच में बार-बार संभालते रहे अपनी टोपी

उन्हें सबसे ज़्यादा खतरा

अपनी टोपी के ऊपर महसूस होता है

सिर कट जाए

लेकिन सलामत रहे टोपी


वे अपने मौसम में आते हैं और इकट्ठा करते हैं मजमा

भीड़ के अन्दर टोपी की तरह वे उग आते हैं

वे इस बात से बेख़बर हैं कि आएगी तेज़ हवा

उड़ा कर ले जाएगी टोपी