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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / तृतीय सर्ग / पृष्ठ - १

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दृश्य जगत्

आकाश

(1)

शार्दूल-विक्रीडित

सातों ऊपर के बड़े भुवन हों या सप्त पाताल हों।
चाहे नीलम-से मनोज्ञ नभ के ता महामंजु हों।
हो बैकुंठ अकुंठ ओक अथवा सर्वोच्च कैलास हो।
हैं लीलामय के ललाम तन से लीला-भ लोक ए॥1॥

        वंशस्थ

        अनन्त में है उसको अनन्तता।
        विभा-विभा में असुशक्ति वायु में।
        विभूति भू में रस में रसालता।
        चराचरात्मा विभु विश्वरूप है॥2॥
(2)

गीत

है रूप उसी विभु का ही।
यह जगत रूप है किसका।
है कौन दूसरा कारण।
यह विश्व कार्य्य है जिसका॥1॥

है प्रकृति-नटी लीला तो।
है कौन सूत्रधार उसका।
अति दिव्य दृष्टि से देखो।
भव-नाटक प्रकृति पुरुष का॥2॥

है दृष्टि जहाँ तक जाती।
नीलाभ गगन दिखलाता।
क्या है यह शीश उसी का।
जो व्योमकेश कहलाता॥3॥

वह प्रभु अनन्त-लोचन है।
जो हैं भव ज्योति सहा।
क्या हैं न विपुल तारक ये।
उन ऑंखों के ही ता॥4॥

जितने मयंक नभ में हैं।
वे उसके मंजुल मुख हैं।
जो सरस हैं सुधामय हैं।
जगती-जीवन के सुख हैं॥5॥

चाँदनी का निखर खिलना।
दामिनी का दमक जाना।
उस अखिल लोक-रंजन का।
है मंद-मंद मुसकाना॥6॥

उसके गभीरतम रव का।
सूचक है धन का निस्वन।
कोलाहल प्रबल पवन का।
अथवा समुद्र का गर्जन॥7॥

अपने कमनीय करों से।
बहु रवि शशि हैं तम खोते।
क्या हैं न हाथ ये विभु के।
जो ज्योति-बीज हैं बोते॥8॥

भव-केन्द्र हृदय है उसका।
नव - जीवन - रस - संचारी।
है उदर दिगन्त, समाईं।
जिसमें विभूतियाँ सारी॥9॥

हैं विपुल अस्थिचय उसके।
गौरवित विश्व के गिरिवर।
है नसें सरस सरिताएँ।
तन-लोम-सदृश हैं तरुवर॥10॥

जिसके अवलम्बन द्वारा।
है प्रगति विश्व में होती।
है वही अगति गति का पग।
जिसकी रति है अघ खोती॥11॥

है तेज-तेज उसका ही।
है श्वास समीर कहाता।
जीवन है जग का जीवन।
बहु सुधा-पयोधिक-विधाता॥12॥

रातें हैं हमें दिखातीं।
फिर रह वासर है आता।
यह है उसकी पलकों का।
उठना-गिरना कहलाता॥13॥

जिनसे बहु ललित कलित हो।
बनता है विश्व मनोहर।
उन सकल कलाओं का है।
विभु अति कमनीय कलाधर॥14॥